तीतरो कस्बा – सहारनपुर जनपद की दक्षिणी सीमा पर स्थित है।
तीतरो क्षेत्र अपनी पौराणिक विशिष्टताओं के कारण प्रसिद्धि का केंद्र रहा है। नगर में स्थित प्राचीन मंदिर, पौराणिक स्थान तथा क्षेत्र में मिले महत्वपूर्ण पुरातन प्रमाणों ने इस बात को सिद्ध भी किया है।
तीतरों नगर में कई कई प्राचीन स्थान कर्ण ताल पर बना स्नान गृह, सती भवन, ज्योति बाग स्थित प्राचीन शिव मंदिर आदि है।
कर्ण ताल के बारे में कई किवदंतियां प्रचलित हैं। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि कर्ण ताल पर महाभारत काल में महाबली कर्ण कभी-कभी यहां आकर स्नान आदि के उपरांत निकटवर्ती शिव मंदिर में पूजा अर्चना किया करते थे। जिससे इस स्थल का नाम कर्ण ताल हुआ।
कर्ण ताल के उत्तरी छोर पर सती भवन बना है इसके बारे में बताया जाता है कि यह राज परिवार की एक स्त्री की समाधि है। जो इस स्थान पर सती हुई थी ।इसके पास ही भूमिया भवन, शीतला माता मंदिर ,शिवभक्त मंदिर जैसे स्थान है। इन स्थानों को इतिहासकार भी अति प्राचीन प्रमाणित करते हैं ।अब यह सभी स्थल जीर्ण शीर्ण है।
इसी क्षेत्र में ही गुरु भीष्म नागा बाबा , योगी देवीनाथ,
योगी फूलनाथ, भीष्म नागा बाबा की समाधियां है। महात्मा बाबा फूल नाथ ने इसी पावन स्थान पर आजीवन भक्ति की थी।
तीतरों कस्बे में कई प्राचीन एवं पुरातत्व महत्व के मंदिर हैं l जिनमें कस्बे के पश्चिम में स्थित लगभग 1000 वर्ष पुराना ज्योति शिव मंदिर ,भोला पार्वती मंदिर तथा शिव गणेश मंदिर लोगों की आस्था के प्रतीक हैं।
कर्णताल से कुछ ही दूरी पर मोती बाग स्थित प्राचीन शिव मंदिर की अपनी विशिष्ट महत्ता है।
इस शिव मंदिर का भवन प्राचीन कलाकृतियों और भित्ति चित्र युक्त है। भित्ति चित्रों में से कुछ चित्र नष्ट हो चुके हैं ।जो भित्ति चित्र शेष बचे हैं उनमें मीराबाई , श्री कृष्ण का गोपियों के संग रास नृत्य, हनुमान भक्ति, राज दरबार, देवी – देवता ,आकर्षक फूल – बेल बूटों की आकृतियों का अंकन है जिन्हें देखने वाले सहसा ही अभिभूत हो जाते हैं।
इन प्राचीन मंदिरों की विशिष्टता कायम रखने के लिए इनके रखरखाव और जीर्णोद्धार पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
इस मंदिर के बारे में पुराने जानकार बताते हैं कि इस मंदिर का निर्माण लाला कन्हैया लाल की पूर्वजों में धर्मावलंबी स्त्री पिस्तो देवी ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार १७ वीं व १८वीं सदी में कराया था ।कहा जाता है कि इस मंदिर में श्रद्धा भाव से आने वाला कोई भी श्रद्धालु कभी खाली नहीं लौटता है l
यहां के खेतों में मिलने वाले प्राचीन अवशेषों को देखकर इतिहासकारों ने यह संभावना व्यक्त की है कि यह क्षेत्र सिंधु घाटी सभ्यता का विकसित क्षेत्र रहा है।
यहां के निकट के गांव मनोहरा के समीप हुलास नामक स्थान से 5000 साल पुरानी हड़प्पा सभ्यता से लेकर और भी कई काल खंडों के महत्वपूर्ण पुरातत्व अवशेष मिले हैं।. प्राचीन स्थल हुलास पर पुरातत्व विभाग के द्वारा उत्खनन में प्राचीन मिट्टी के बर्तन ,ईट ,औजारों व अन्य पुरातत्व अवशेषों के आधार पर यहां सिंधु घाटी की सभ्यता का विकसित नगर बसा होने की पुष्टि हुई थी।
लेकिन पुरातत्व विभाग की उपेक्षा के कारण ये स्थान जीर्ण-शीर्ण स्थिति में पहुंच गए हैं और लगातार खनन व अवैध कब्जों के कारण पुरातन प्रमाण नष्ट हो रहे हैं।
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बरसी
बरसी गांव – (गांव मनोहरा -( हुलास से 1 कि.मी. दूर है)
यह गांव अपनी अनेक विशेषताओं के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। बरसी गांव बहुत ही रमणीक है। प्रकृति ने भी अपने रूप से इसे और भी सुंदर बना दिया है। गांव से थोड़े ही फासले पर पूर्व और पश्चिम दिशा में दो राजवाहे बहते हैं। इन दोनों राजवाहों के पानी से यहां के उपजाऊ खेतों में फसलें लहलहा उठती है। गांव के चारों ओर आमों के बाग हैं ।आमों के मौसम में जब आम के पेड़ों पर बौर आता है तो बौर की सुगंध से सभी का मन प्रफुल्लित हो उठता है। कोयल की कूक कानों में गूंजने लगती है।
इस गांव का नाम बरसी होने के विषय में यह मान्यता है कि श्री कृष्ण और अर्जुन हस्तिनापुर से कुरुक्षेत्र के मैदान में जा रहे थे तो श्री कृष्ण की दृष्टि इस रमणीक स्थल की ओर पड़ी। यहां का वातावरण उन्हें देखने में वृज सा लगा तो श्रीकृष्ण के मुंह से इस जगह का नाम वृजसी निकल पड़ा और उन्होंने विश्राम के कुछ क्षण इसी स्थान पर बिताने का निश्चय किया। वृजसी नाम आज बरसी गांव के नाम से जाना जाता है।
शिव मंदिर – श्री बलेश्वर महादेव मंदिर
( नानौता से 4 कि.मी. दूर)( नानौता – तीतरो मार्ग पर ग्राम बरसी में शिव मंदिर पर जाने के लिए रजवाहे से गुजरना पड़ता है)
बरसी गांव की प्रसिद्धि का कारण गांव से पश्चिम में स्थित प्राचीन शिव मंदिर- बलेश्वर महादेव मंदिर है। महाभारतकालीन प्राचीन शिव मंदिर की इस क्षेत्र में बहुत मान्यता है। जमीन से 60 फुट की ऊंचाई पर बना यह एक विशाल एवं प्रसिद्ध् मंदिर है l जिस पर प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी महाशिवरात्रि पर एक ३ दिवसीय विशाल मेला लगता है। जिसमें लाखों श्रद्धालु यहां शिवलिंग पर जलाभिषेक करने के लिए उमड़ पड़ते हैं। इस दौरान मंदिर प्रांगण बम बम भोले व हर हर महादेव के जय घोष से गुंजायमान हो उठता है। इस अवसर पर श्रद्धालु गण जल और भेल्ली (गुड़) का प्रसाद चढ़ाकर मनोकामनाएं मांगते हैं। यह भी कहा जाता है कि मंदिर के आस-पास विषैले सर्प के डस लेने पर भी किसी को कोई हानि नहीं पहुंची है और यदा-कदा विषैले सर्प मंदिर क्षेत्र में विचरण करते भी देखे गए हैं।
इस अवसर पर शिव मंदिर को भव्य रूप से सजाया जाता है। यह शिव मंदिर इस क्षेत्र की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
इस शिव मंदिर के बारे में मान्यता है कि इस मंदिर को अपने वनवास के समय पांडवों ने बनवाया था। उस समय इस मंदिर के चारों और वन ही वन थे और बंदरों का आतंक था। आज के समय वह वन तो समाप्त हो गए हैं ।इस मंदिर की एक और विशेषता है। अन्य मंदिरों की तरह इस मंदिर का द्वार पूर्व दिशा की ओर न होकर पश्चिम दिशा की ओर है। इसका कारण यह बताया जाता है की इस मंदिर के निकट से पश्चिम दिशा में यमुना नदी बहती थी।
बरसी का ऐतिहासिक शिव मंदिर इतिहासकारों एवं पुरातत्वविदों के बीच चर्चा का विषय बना रहा है। मंदिर क्षेत्र से समय-समय पर मिले पुरातन अवशेष इसकी प्राचीनता का जीवंत प्रमाण है l
इस मंदिर की प्राचीनता का प्रमाण यहां से प्राप्त एक शिलालेख है। जिसे पुरातत्व विभाग द्वारा दिल्ली ले जाया गया था। इस शिलालेख को आज तक पढ़ा नहीं गया और वह वहां स्थित संग्रहालय में रखा है।
मंदिर का गुंबद कटोरी के आकार का है जो गुप्तकालीन मंदिरों से मेल खाता है। गुंबद के निर्माण में मिट्टी चूना व अन्य सामग्री का प्रयोग किया गया है। जिससे इसके अति प्राचीन होने का प्रमाण मिलता है। इस मंदिर के निर्माण काल का निर्धारण कर पाना संभव नहीं है l मंदिर के आकार तथा अब तक प्राप्त पुरातन सामग्री आदि से यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह देश का सर्वाधिक प्राचीन मंदिर है l
इस प्राचीन शिव मंदिर की दीवारों पर काफी सुंदर कलाकृतियां बनी हुई थी जो अब नष्ट हो गई हैं।
इस प्राचीन शिव मंदिर की प्राचीनता से अनभिज्ञ ग्रामीणों ने मंदिर की दीवारों पर संगमरमर की टाइलें लगवा दी हैं। जिससे प्राचीन कलाकृतियां पीछे दब गई हैं ।इतना ही नहीं मंदिर में स्थापित प्राचीन संगमरमर की मूर्तियां खंडित होने पर उन्हें गंगा जी में विसर्जित कर दिया गया और उन के स्थान पर नई मूर्तियां स्थापित करा दी गई हैं।
इन सब स्थानों के अलावा इस क्षेत्र में ग्राम ढोला फतेहपुर बालू महंगी टिकरोल फतेह चंद्रपुर रादौर मोहम्मदपुर गांव के खेतों से भी अक्सर प्राचीन ईटिंग छोटी मूर्तियां मिट्टी तांबा कासा के बर्तन औजार अस्थियां आदि जैसे अवशेष मिलते रहते हैं जिससे इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता चलता है स्थान निश्चित रूप से प्राचीन सभ्यताओं का केंद्र रहा है पुरातत्व विभाग यदि इस क्षेत्र में उत्खनन कर आए तो समय की गर्द मे छिपी परतें छुटने से और भी दुर्लभ जानकारी सामने आ सकती है
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. रादौर
रादौर गांव – ( गंगोह से 12 किलोमीटर दूर कांगो तीतरों जलालाबाद मुख्य मार्ग पर स्थित है )
रादौर गांव की इस इलाके में एक अनोखी पहचान हैं। इस गांव के बारे में कई किस्से कहानियां प्रचलित है। बताते हैं कि इस गांव का नाम बहुत पहले रहमतपुर था। उस समय यहां मुस्लिम राजपूत रहा करते थे। इसी दौरान इस गांव में ज्वालापुर (हरिद्वार) स्थित मायाापुरी बस्ती के गुर्जर जाति के श्रीपाल व रूद्रपाल नामक दो भाइयों ने शरण ली। दोनों भाइयों की किसी बात पर यहां के मुस्लिम राजपूतों से ठन गई। ऐसे में गांव में पंचायत हुई और इस पंचायत ने गुर्जरों और मुस्लिम राजपूतों के मध्य मल्ल युद्ध कराने का निर्णय लिया। रूद्र पाल और मुस्लिम राजपूत बिरादरी के एक पहलवान के मध्य में मल्ल युद्ध हुआ जिसमें रूद्र पाल की जीत हुई। इसके बाद मुस्लिम राजपूतों को गांव छोड़ना पड़ा। तब से इस गांव का नाम रुद्रपुर पड़ा और बाद में यह गांव रादौर के नाम से जाना जाने लगा। दूसरे भाई श्रीपाल के नाम पर भी यहां एक मोहल्ला ‘छह श्री पट्टी’ है।
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एक और रोचक कहानी इस गांव के बारे में कही जाती है कि गांव जान खेड़ा के चौधरी परिवार के मुखिया लड़कियों के रिश्ते अन्य गावों में जबरन कराते थे। एक बार जानखेड़ा गांव के मुखिया ने रादौर गांव में भी ऐसा ही करना चाहा। लेकिन रादौर गांव के विद्रोही लोगों ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसके फलस्वरूप जान खेड़ा के चौ. झालू ने गांव राजपुर, हंगावली, नूरखेड़ी, महंगी, जानखेड़ा के ग्रामीणों के साथ मिलकर रादौर गांव पर हमला कर दिया, जिसे रादौर व सांगा ठेड़ा के ग्रामीणों ने मिलकर विफल कर दिया । तभी से आज तक गांव रादौर के लोग जानखेड़ा, राजपुर, महंगी, हंगावली व नूरखेड़ी में अपनी लड़कियों के रिश्ते तय नहीं करते। क्षेत्र के पूर्व विधायक स्वर्गीय नारायण सिंह ने इन गांवों के बीच मनमुटाव समाप्त करने के प्रयास किए थे। लेकिन उन्हें असफलता ही मिली थी।
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1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों ने रादौर गांव को विद्रोही गांव की श्रेणी में रखा था। उस समय अंग्रेजों ने रादौर गांव पर तोप से गोले बरसा कर गांव के कई मकान और हवेलियां ध्वस्त कर दी थी। जिनके अवशेष आज भी इस गांव में देखे जा सकते हैं। यहां के कई ग्रामीणों ने कई बार अंग्रेजों की जेलों की यातनाएं सही हैं।