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_________________मुजफ्फरनगर जनपद (उ.प्र.-भारत)के १०० कि.मी. के दायरे में गंगा-यमुना की धरती पर स्थित पौराणिक महाभारत क्षेत्र
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मसूरी की पहाड़ियों का अनुठा प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों को अपने आंचल में आने के लिए हमेशा से आकर्षित करता रहा है। हरे-भरे मनोरम पहाड़, भांति-भांति के पक्षी और विविध प्रकार की वनस्पतियों से लदी हुई मसूरी की पहाड़ियां न केवल सौंदर्य प्रेमी पर्यटकों बल्कि शोधकर्ताओं और साहित्यकारों आदि को भी आकर्षित करती रही है।
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 36 कि.मी.दूर स्थित इस रमणीय स्थान के अवलोकन और यहां के सौंदर्य का आनंद उठाने लाखों पर्यटक उमड़ पड़ते हैं।
बताते हैं कि मसूरी की पहाड़ियां हिमालय पर्वत की सबसे हरी-भरी पहाड़ियां हैं। यहां की पहाड़ियों पर प्राकृतिक रूप से तरह-तरह के फूल खिलते हैं तथा ये चीड़, देवदार तथा अन्य प्रकार के पेड़ों से ढकी रहती हैं। इन मनोहारी दृश्यों को देखने देश-विदेश सैलानी यहां आते हैं।
लेकिन मसूरी की जिन भरी भरी पहाड़ियों को देखने के लिए पर्यटक भारी संख्या में यहां आते हैं, एक समय वह आया कि ये पहाड़ियां दिन पर दिन कुरूप होती चली गई, उन पर जगह-जगह दाग उभर आए। सुंदर पर्वतीय फूलों की सुगंध अतीत की बात बन गई और यहां आमतौर पर दिखाई दे जाने वाले पक्षियों को देखना भी दुर्लभ हो गया। औषधियों और जड़ी बूटियों वाले क्षेत्र सूख गए। पेड़ों के साथ-साथ पौधों-वनस्पतियों का भी विनाश होता गया जिसके फलस्वरूप इस स्थान पर अनेक जंगली पौधे सदा के लिए लुप्त हो गए। पेड़ों के नष्ट होने से यहां पशु-पक्षियों की कई किस्में भी गायब होती चली गई।
मसूरी के प्राकृतिक सौंदर्य और जलवायु पर वृक्षों की भारी कटाई व चूना पत्थर के खनन और पर्वतों के चीरहरण का गंभीर दुष्प्रभाव पड़ा। चंद रुपयों के लिए विश्व प्रसिद्ध मसूरी घाटी को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया गया था। सार्थक प्रयासों से इस घाटी की हरियाली की शोभा फिर से छाने लगी।
अंग्रेजों के समय में ही मसूरी एक अव्वल दर्जे के हिल स्टेशन के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थी। उस समय की सरकार के बनाए नियमों के अनुसार यहां बिना अनुमति के किसी तरह का कोई भी गलत निर्माण,वन कटान या खनन का काम नहीं किया जा सकता था।
मसूरी की पहाड़ियों में बढ़िया किस्म का चूना पत्थर, संगमरमर,जिप्सम तथा फास्फोरस मिलता है। इसके उत्तर-पश्चिम में हाथी पांव से दक्षिण-पूर्व में रानी पोखरी तक के पचास कि. मी. लम्बे क्षेत्र में ये खनिज पदार्थ पाए जाते हैं।
देहरादून जनपद में पाए जाने वाले चूना पत्थर को कई प्रकार से उपयोग में लाया जाता है। लेकिन इसकेे खनन से हिमालय के नाज़ुक प्रर्यावरण संतुलन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा तथा इससे पर्यावरण, प्रदूषण तथा परिस्थितिकीय असंतुलन पैदा हो गया।
देहरादून और मसूरी की पहाड़ियों में पुराने समय से ही चूना पत्थर मिलता रहा है। बताया जाता है कि यहां के चूना पत्थर की व्यापारिक मांग लगभग डेढ़ सौ-दो सौ वर्ष पहले शुरू हुई। उसी समय यहां की नदियों में चूने के पत्थर की चुगान भी शुरू हुई।
बिहारी लाल बख्तावर सिंह ने लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले यहां से चूने की आढ़त का काम शुरू किया था। सन 1937 में यहां की पहली चूना पत्थर की खान मसूरी के भट्टा गांव में शुरू हुई थी।
मसूरी के पहाड़ों में चूने का पत्थर सर्वाधिक मात्रा में पाया जाता है। चूने का पत्थर का सीमेंट, खाद तथा अन्य अनेक वस्तुओं के निर्माण में प्रचुरता से प्रयोग किया जाता है। अपने देश में मसूरी की थाइम स्टोन की खानें सर्वोत्तम मानी जाती हैं। यही कारण है कि यहां की पहाड़ियों में बहुत बड़े पैमाने पर चूना पत्थर का खनन किया गया। यहां से हजारों ट्रकों में चूना पत्थर भरकर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, कानपुर तथा देश के अन्य अनेक औद्योगिक नगरों में भेजा जाता था।
आजादी के बाद अंग्रेज मसूरी से चले गए, उनके जाने के बाद उनके बनाए नियम भी बदल दिए गए। जन-प्रतिनिधियों की सरकार ने चूना पत्थर निकलने के लिए अंधाधुंध पट्टे बांटने शुरू कर दिए। पट्टेदारों ने डायनामाइट लगा कर पहाड़ ढाहने शुरू कर दिए।
खनन के लिए पहले जमीन पर पेड़ों की कटाई की जाती है तथा उसके बाद विशाल पत्थरों को विस्फोट से उड़ाया जाता है। इससे भूमि का क्षरण होने लगता है और मिट्टी बहकर नदियों तथा झरनों के तल पर जमा होकर उनका रास्ता रोक देती है।
अधिकाधिक धन कमाने की चाह में यहां अंधाधुंध पेड़ों की कटाई की गई और अनियोजित खनन से प्रर्यावरण को इतना अधिक नुकसान पहुंचाया गया था कि यहां पर कई सालों तक सामान्य रूप से वर्षा भी नहीं हुई। हरी-भरी पहाड़ियां रोगग्रस्त दिखाई देने लगी थी। बारूदी विस्फोटों ने मसूरी की पहाड़ियों को हिला कर रख दिया था जिससे ये पहाड़ियां घंसने और खिसकने लगी थी। कई वर्षों तक अवैज्ञानिक तरीके से यहां चूना पत्थर के खनन के कारण मसूरी की पहाड़ियां वनस्पति विहीन हो गई थी।
आखिरकार कुछ लोग चेते और उनकी दरख्वास्त पर सर्वोच्च न्यायालय ने यहां की चूना पत्थर की खदानों में खनन पर रोक लगा दी।
मसूरी की पहाड़ियों की ऐसी गंभीर स्थिति पर नियंत्रण पाकर नष्ट हुई यहां की प्राकृतिक छटा को फिर से लाने के प्रयास किए गए। पर्वतों की रानी मसूरी फिर हरी-भरी दिखाई देने लगी । इन पर फिर से हरियाली आने लगी।
आजादी के बाद जन-प्रतिनिधियों के द्वारा मसूरी में इमारतों के निर्माण की स्वीकृति मिली। तब यहां बड़ी संख्या में बहुमंजिली इमारतों के निर्माण का कार्य शुरू हुआ। यहां आने वाले पर्यटकों की संख्या साल दर साल बढ़ते जाने से नये नये होटल खुले।
पिछली शताब्दी के लगभग आठवें दशक में मैदानी इलाकों के कालोनाइजरों की गिद्ध दृष्टि यहां की मनोरम पहाड़ियों पर आ जमी। कम समय में ढ़ेर सारा पैसा कमाने की चाह में उन्होंने यहां की बेहतरीन आबोहवा में बहुमंजिली इमारतों का जंगल खड़ा कर दिया।
चूना पत्थर की खदानों के दोहन से पहाड़ों के विकास की जो कसर बाकी रह गई थी, वह इन बहुमंजिली इमारतों ने पूरी कर दी। उस समय नियमों को ताक पर रख कर मसूरी में बहुमंजिली इमारतें बनाने की होड़ लग गई थी। अपार्टमेंटों की कतार लगने के बाद बढ़ी हुई आबादी के लिए यहां पीने के पानी का संकट खड़ा हो गया, और भी न जाने कितनी समस्याओं से मसूरी को दो- चार होना पड़ा।