बिजनौर जनपद का मंडावर एक प्राचीन और ऐतिहासिक कस्बा है। इतिहासकार बताते हैं कि पहले इस स्थान का नाम प्रलंभनगर था। जो बाद में मदारवन, मतिपुर, मंदावर से अब मंडावर के नाम से जाना जाता है।
बौद्ध काल में मंडावर एक प्रसिद्ध नगर और बौद्ध स्थल था। प्रसिद्ध इतिहासकार कनिंघम का मानना है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां पर लगभग 6 माह तक रहा था। ह्वेनसांग ने इस पूरे इलाके का ऐतिहासिक और भौगोलिक अध्ययन किया था।
बहुत ही कम लोगों को मालूम है कि इतिहास की पुस्तकों में पढ़ाए जाने वाला अरब यात्री इब्नेबतूता सन 1130 ए डी मैं मंडावर आया था। वह घुमंतू विद्वान था। 29 साल के अपने घुमंतू जीवन में वह भारत की अपनी यात्रा के दौरान मंडावर से होकर गुजरा। अपने सफरनामे में उसने दिल्ली से मंडावर होते हुए अमरोहा जाना लिखा है। इब्नेबतूता भारत के उत्तर-पश्चिमी द्वार से दिल्ली आया। उस समय दिल्ली पर सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक का शासन था। तुगलक ने इब्नबतूता को अपनी राजधानी का काजी नियुक्त कर दिया। वह इस पद पर 7 साल तक रहा और उसने इस दौरान कई यात्राएं की। इतिहासकार बताते हैं कि अवध के गवर्नर की बगावत पर उसकी घेराबंदी को 31 अक्टूबर 1331 को सुल्तान यहां गंगा तक आया और उसने यही डेरा डाला।. उसके साथ इब्नेबतूता भी आया था।
सन 1227 में सुल्तान इल्तुतमिश भी मंडावर आया था और यहां उसने एक विशाल मस्जिद बनवाई जो आज भी मंडावर में किले की मस्जिद के नाम से मशहूर है उस समय का किला तो अब नहीं रहा लेकिन मस्जिद अभी भी मौजूद है यह मस्जिद पुरातत्व महत्व का एक नायाब नमूना है
ब्रिटिश काल में लंदन के बकिंघम महल में महारानी विक्टोरिया को मंडावर के रहने वाले मुंशी शहामत अली उर्दू जबान सिखाते थे। मुंशी शहामत अली अंग्रेज सरकार के रेजिडेंट थे। महारानी विक्टोरिया और मुंशी शहामत अली के बारे में और बहुत सी बातें भी बताई जाती है। महारानी ने उन्हें मंडावर में एक महल बनवाकर दिया था। यह महल पूरी तरह से यूरोपियन शैली में बना हुआ है और इसमें अत्यंत महंगी लकड़ियों के खिड़की दरवाजे बनवाए गए थे। महल को झाड़ फानूस से सजाया गया था। लेकिन अब इस महल की वह रौनक तो गायब है और यह महल अब वक्फ की संपत्ति है।