_____________________________________________________ जानिए – – – मुजफ्फरनगर जनपद (उ..प्र.-भारत) के १०० कि.मी. के दायरे में गंगा-यमुना की धरती पर स्थित पौराणिक महाभारत क्षेत्र के एक और स्थान के बारे में – – – _____________________________________________
उत्तराखंड के गढ़वाल में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं व्यापारिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन चुका ‘कोटद्वार’ देवभूमि उत्तराखंड का प्रवेश द्वार कहलाता है।
कोटद्वार कार्बेट नेशनल पार्क व राजाजी नेशनल पार्क के बीचोबीच स्थित होने के साथ-साथ गढ़वाल का अंतिम रेलवे स्टेशन भी है।
कोटद्वार खोह, मालिनी और सुखरौ नदियों के बीच शिवालिक पर्वतश्रेणियों में समुद्र तल से लगभग 1400 फुट की ऊंचाई पर बसा है।
देवभूमि उत्तराखंड का प्रवेश द्वार कोटद्वार गढ़वाल मंडल का एक प्रमुख नगर है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार महर्षि कण्व का आश्रम यहीं था। महर्षि कण्व के आश्रम में ही हस्तिनापुर के महाराजा दुष्यंत और शकुंतला का गंधर्व विवाह हुआ था। दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा। भरत की जन्म स्थली ‘कण्वाश्रम’ कोटद्वार शहर के पास में ही स्थित है।
पहाड़ों के बीच में से होकर बह रही खोह नदी के किनारे बसे होने से पहले इसे खोहद्वार कहा जाता था,उसी का अपभ्रंश रूप है कोटद्वार। ऐसा भी कहा जाता है कि गढ़वाल के ‘गढ़’ अर्थात कोट, दुर्ग में प्रवेश करने का द्वार होने से इसका नाम कोटद्वार पड़ा।
कोटद्वार का इतिहास लगभग 350 वर्ष पुराना है। गढ़वाल के सीमांत दक्षिण में कोटद्वार स्थित है। गढ़ राजाओं और गोरखों के शासनकाल में यहां खोह नदी के बाएं तट पर चुंगी चौकी स्थापित थी। ऐसा माना जाता है कि इसकी स्थापना सन 1668 के आसपास की गई होगी।
अस्वास्थ्यकर जलवायु और मलेरिया के प्रकोप के कारण पहले लोग यहां बसना पसंद नहीं करते थे। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक कोटद्वार में केवल गिनती की दुकानें हुआ करती थीं तथा लोगों की बसावट भी बहुत कम थी । बाद के समय में कोटद्वार ने एक व्यापारिक मंडी का रूप लिया।
सन 1887 में कोटद्वार के निकट कालौड़ांडा(लैंसडौन) में सैनिक छावनी बनने के बाद यहां धीरे धीरे लोगों की बसावट बढ़नी शुरू हुई और यहां के व्यापार में भी वृद्धि होने लगी। सन 1897 में यहां रेलवे लाइन निर्माण और कोटद्वार रेलवे स्टेशन स्थापित हुआ। रेलमार्ग बनने से कोटद्वार में मैदानों से अनाज, कपड़ा, गुड, तांबा आदि धातु के बर्तन व अन्य सामान आते तथा यहां से गढ़वाल के भीतरी भागों तथा भाबर में होने वाली फसलों और वनोपज को बाहर भेजा जाता था।
थोड़े-थोड़े अंतराल सन 1890, 1892, 1896, 1902 और सन 1907 में गढ़वाल के कई इलाकों में अकाल पड़ने के बाद गढ़वाल के लोग कोटद्वार आकर बसने लगे थे। बाद में कोटद्वार के आसपास उस समय की दुसाध्य बीमारी मलेरिया का भय कम होने पर यहां कोटद्वार में लोगों की बसावट बढ़ने लगी।