गंगा-यमुना के इस क्षेत्र में भित्ति चित्रकला का स्वर्णिम इतिहास रहा है। लेकिन अब बदलते परिवेश में यह कला लुप्त होने के कगार पर है। बदलती हुई रुचियों में भित्तिचित्रों की यह परंपरा अब समाप्त हो रही है। एक दिन इतिहास की गवाह बची यह कुछ दीवारें भी संरक्षण के अभाव में नष्ट हो जाएंगी और इस परंपरा को इतिहास के पन्नों में ही तलाशना पड़ेगा।
भित्तिचित्रों को बनाने के लिए रंगो को हरड़, पलाश, कुसुम, मेहंदी, गेरू आदि से तैयार किया जाता था तथा शंख लेप भी । उड़द की पीठी का भी प्रयोग होता था।
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हरिद्वार जनपद
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हरिद्वार केवल एक तीर्थ स्थल ही नहीं बल्कि कला और संस्कृति का केंद्र भी रहा है।
कनखल –
पौराणिक नगरी कनखल का धार्मिक रूप से बहुत महत्व है। कनखल में साधु संतों के अखाड़ों एवं आश्रमों की भरमार है। धार्मिक स्थान होने के कारण पुराने समय में सेठ साहूकारों ने यहां बड़ी बड़ी हवेलियों का निर्माण करवाया था।
कनखल नगरी के मोहल्लों और सड़कों पर घूमते हुए प्राचीन अखाड़ों और सेठ साहूकारों द्वारा बनवाई गई हवेलियों के खंडहर जहां-तहां दिखाई पड़ जाते हैं। इन प्राचीन टूटे हुए खंडहरों पर कलात्मक भित्तिचित्र अंकित है। साधुओं के अखाड़ों की हवेलियां तो किले के किले हैं। अखाड़ों की यह विशाल हवेलियों के खंडहर भी भित्ति चित्रों से सजे हुए हैं। इन प्राचीन हवेलियों को देखकर यह समझा जा सकता है की ऐतिहासिक युग में यह कनखल नगरी विशालकाय कलात्मक भवनों का नगर रही होगी।
यहां के पुराने मकानों में आज भी भित्तिचित्र मौजूद हैं। बहुत से पुराने मकानों के कमरों की दीवारों के चित्र तो मिटा दिए गए हैं। लेकिन बाहरी हिस्सों में वह आज भी दिखाई देते हैं।
कनखल में प्रजापति मंदिर तथा निर्मल अखाड़ा इस भित्तिचित्रकला के गौरवशाली इतिहास के गवाह हैं। इनके अलावा कई पुराने भवनों में भी यह कला आज भी जिंदा है।