_________________________________________________मुजफ्फरनगर जनपद के १०० किमी के दायरे में गंगा-यमुना की धरती पर स्थित पौराणिक महाभारत क्षेत्र
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भरत मंदिर – ऋषिकेश
यह प्राचीनतम एवं विशाल मंदिर ऋषिकेश का सबसे पवित्र मंदिर है। भरत मंदिर का इतिहास ही इस प्राचीन नगरी का इतिहास है।
स्कंद पुराण के केदारखंड के अंतर्गत भरत मंदिर का विस्तार से वर्णन किया गया है।
पुराण के अनुसार प्राचीन काल में १७ वें मन्वंतर में इस स्थान पर तपस्या में लीन रैम्य मुनि की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने कहा –
कुब्जाम्रके महातीर्थे वसामि रमयासह।
हृषीकाणि पुराजित्वा दर्शः संप्रार्थिस्त्ववया।।
यद्वाहं तु हृषीकेशो भवाम्यत्र समाश्रितः।
ततोsस्या पदकं नाम हृषीकेशाश्रितं स्थलम्।।
मैं (विष्ण) कुब्जाम्रक महातीर्थ में लक्ष्मी सहित निवास करूंगा। हृषीक इंद्रियों को जीत कर तुमने ईश-मेरे दर्शन करके यहां निवास करने की प्रार्थना की, अतः मैं हृषिकेश के नाम से इस स्थान पर रहूंगा, जिस कारण इस स्थान को ‘हृषिकेश’ कहा जाएगा।
इससे आगे भगवान नारायण ने मुनी रैम्य को संबोधित करके कहा – त्रेता युग में मेरे चतुर्थांश से उत्पन्न दशरथ के पुत्र भरत मुझे यहां पुणः स्थापित करेंगे, उनके द्वारा स्थापित यह मूर्ति कलयुग में ‘भरत’ के नाम से प्रसिद्ध होगी।
वराह पुराण में इसी स्थान पर रैम्य मुनि की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने आम्र (आम) के वृक्ष पर बैठकर दर्शन देने तथा भार से वृक्ष के झुकने के कारण इस स्थान को कुब्जाम्रक नाम से पुकारने का उल्लेख है।
श्री भरत मंदिर के गर्भगृह में भगवान हृषिकेश नारायण की एक ही काली शालिग्राम शिला से निर्मित पांच फुट ऊंची चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है। यह मंदिर रामानुज संप्रदाय से संबंधित है।
प्राचीन काल में पुजारियों ने आतताईयों के भय से इस प्रतिमा को मायाकुंड में छिपाकर रख दिया था।
जगतगुरु आदि शंकराचार्य जब बद्रिकाश्रम की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तब उन्हें ऋषिकेश पहुंचने पर पता चला की प्राचीन मूर्ति को आतताईयों के भय से मायाकुंड में छिपा कर रखा गया है। तब उनके द्वारा प्राचीन प्रतिमा को मायाकुंड से निकालकर इस मंदिर में वसंत पंचमी के दिन पुनर्स्थापित किया गया। आज भी वसंतोत्सव पर प्रतिवर्ष भगवान नारायण की उत्सव प्रतिमा को जुलूस के साथ गंगा स्नानार्थ ले जाया जाता है।
भरत मंदिर का उल्लेख वराह पुराण, स्कंद पुराण, मत्स्य पुराण, नरसिंह पुराण, कूर्म पुराण, गरुड़ पुराण और महाभारत के वन पर्व में प्राप्त होता है।
नागर शैली के शिखर वाला श्री भरत मंदिर हजारों साल से इसी स्थान पर स्थित है। आदि शंकराचार्य के यहां आने से भी बहुत पहले यह मंदिर यहां स्थापित था। मंदिर का मुख्य भाग आद्य शंकराचार्य से भी पूर्व का है। वास्तुविदों के अनुसार इस प्रकार की शैली के मंदिर गुप्त काल से भी पूर्व में निर्मित होते थे। शिखर स्थल में सैकड़ों मन वजन की बड़ी-बड़ी पाषाण शिलाओं को काटकर स्थापित किया गया है।
मंदिर के गर्भ में गुंबद के नीचे का भाग जिसे आमलक कहा जाता है तथा भगवान हृषिकेश नारायण की प्रतिमा के ऊपर संपूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा सिद्धि प्रदाता श्रीयंत्र निर्मित किया गया है। आमलक पर पत्थर से निर्मित श्रीयंत्र अद्भुत कला का परिचायक है।
मंदिर के परिक्रमा मार्ग में बूटधारी सूर्य की प्रतिमा स्थापित है। इस प्रकार की बूटधारी सूर्य की प्रतिमाओं का चलन शक काल में प्रचलित था। इससे विद्वान मानते हैं कि यह मंदिर गुप्त काल से भी प्राचीन है। मंदिर के परिक्रमा मार्ग में पाषाण की विभिन्न मूर्तियां भी बनी हुई हैं। समय-समय पर इस मंदिर की मरम्मत किए जाने के शिलालेख मंदिर के परिक्रमा मार्ग में स्थित हैं। इन शिलालेखों में सबसे प्राचीन शिलालेख पाली प्राकृत भाषा में है जो संवत १११६ विक्रमी का है।
श्री भरत मंदिर के बाह्य प्रकोष्ठ का निर्माण सन १८३२में नाभा स्टेट के महाराजा द्वारा करवाया गया था। शिखर में तीन-तीन की पंक्ति में नौ गुंबद बनाए गए हैं।
वामन पुराण, नरसिंह पुराण, पदम पुराण, मत्स्य पुराण आदि के साथ-साथ स्कंद पुराण के केदारखंड और महाभारत के वन पर्व में इस मंदिर के धार्मिक महत्व का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि इस पवित्र स्थान पर आकर भगवान ऋषिकेश नारायण की पूजा अर्चना करने वालों में प्रहलाद, पांडव और आद्य शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, रामानंदाचार्य आदि युग पुरुष हैं।
श्री भरत मंदिर के समीप ही पौराणिक पातालेश्वर महादेव तथा भद्रकाली के प्राचीन मंदिर हैं। स्कंद पुराण में कहा गया है कि भगवान हृषिकेश के दर्शन कर उन्हें नमन करता है उन्हें परम ऐश्वर्य रूप मुक्ति प्राप्त होती है।
प्राचीन काल में बद्रीनाथ धाम की यात्रा अत्यंत दुःसाध्य थी इसलिए सनातन धर्म के धर्माचार्यों ने श्री भरत मंदिर की महत्ता, पवित्रता तथा प्राचीनता को देखते हुए निश्चय किया कि अक्षय तृतीया (वैशाख शुल्क तीज) को भगवान हृषिकेश नारायण के दर्शन करके उनकी न्यूनतम १०८ परिक्रमा करने पर महान पुण्य लाभ सहित बद्रीनाथ के दर्शन का पुण्य प्राप्त होता है।